Friday, January 7, 2011

ओस की बूँदें


बचपन के दिन भी बहुत खूब थे,

याद आता है बारिश में भीगना और सर्दी में कोहरे में ठिठुरना
सुबह सुबह ओस की बूंदों से नम, भीगी भीगी घास पे चलना

मन को ये सब कितना भाता था

पापा का सूरज उगने से पहले उठाना और सैर पे ले जाना
नींद में उठ कर जब हम पैर पटकते पीछे पीछे चल देते
तो वो दौड़ कर पार्क के दस चक्कर लगाने को कहते
कितना खलता था तब देर तक ना सो पाना

मगर कुछ भी हो दूब की वो ताज़ी हरी नुकीली पतियाँ
पैरों को छू तरो-ताज़ा कर देती, और नींद काफूर हो जाती थी

मम्मी का ठण्ड बहुत है कह कर दो स्वेटर पहनाना
और हमने रास्ते में में ही एक को निकाल जाना
सर पर टोपी या स्कार्फ बांधना बिलकुल ना भाता
हेयर स्टाइल खराब हो जाएगा, ये ख्याल जो रहता

ठण्ड लग जाने का डर तब नहीं सताता था
और घने कुहरे में खेलने में मज़ा बहुत आता था