Wednesday, November 14, 2007

Mohabbat

ख्वाब तो सजाए थे आरजू भी थी
तुझे सवारने में लुटा दूँ मैं ज़िन्दगी अपनी
तमन्ना थी दिल में जिस मोहब्बत की
उसे पाने को भुला दूँ दुनिया की ख़ुशी

एक मेरा भी घर हो एक मेरी भी दुनिया
जिसकी बुनियाद में हो मेरे दिल की लगी
जिसकी हवाओं में हो तेरे प्यार की खुशबू
जिसके आँगन में हो मेरे प्यार की कली....

मगर ये क्या, कदम उठने से पहले ही
रह गयी मेरी हर ख्वाइश अधूरी
बहारों को भी था रश्क जिस पर
खिजां के फूल की तरह मुरझा गयी वो ही कली
हकीकत से जब रूबरू हुई तो
ख्वाब बन कर रह गयी उल्फत तेरी

मुड़कर जो पीछे देखा मैंने
एक टूटी हुई आस नज़र आयी
झाँका जो दिल के झरोखों में अपने
मोहब्बत करते करते भी ज़फा नज़र आयी

नज़र उठाई या पलक झुकाई हर पल
दिल को चीर गयी तेरी आँखों की गहराई
दिल के जख्मों को जब देखा तो पाई
तेरी यादें और एक खामोश तन्हाई

अज़ब ये खेल देखा मैंने उल्फत का
मुझे क्या से क्या बना गयी ये प्रीत तेरी
और खुद मुझको ही था गुमाँ जिस पर
एक सवाल बन कर रह गयी वही ज़िन्दगी मेरी

1 comment:

Unknown said...

Hi Sapphire! So you are poet. I got a comment from you. I am fine now and going for CAT07. Hope to get percentile above 80, but that's not sufficient. Please give me your honest comments over my blog. That would help me improve it.